श्रावण मास काआध्यात्मिक महत्त्व

श्रावण अथवा सावन हिंदु पंचांग के अनुसार वर्ष का पाँचवा महीना ईस्वी कलेंडर के जुलाई याअगस्त माह में पड़ता है।इसे वर्षा ऋतु का महीना या 'पावसऋतु' भी कहा जाता है, क्योंकि इस समय बहुत वर्षा होती है।इस माह में अनेक महत्त्वपूर्ण त्योहारमनाए जाते हैं, जिसमें 'हरियालीतीज', 'रक्षाबन्धन', 'नागपंचमी' आदिप्रमुखहैं। 'श्रावणपूर्णिमा' को दक्षिण भारतमें 'नारियली पूर्णिमा' व 'अवनीअवित्तम', मध्यभारतमें 'कजरीपूनम', उत्तरभारत में 'रक्षाबंधन' और गुजरात में 'पवित्रोपना' के रूप में मनाया जाता है।त्योहारों की विविधता ही तो भारत की विशिष्टता की पहचान है। 'श्रावण' यानी सावन माह में भगवान शिव कीअराधना का विशेष महत्त्व है।इस माह में पड़ने वाले सोमवार "सावन के सोमवार" कहे जाते हैं, जिनमें स्त्रियाँ तथा विशेष तौर से कुंवारी युवतियाँ भगवान शिव के निमित्तव्रतआदि रखती हैं।

सावन माह के बारे में एक पौराणिक कथा:

"जब सनतकुमारों ने भगवान शिव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो भगवान भोलेनाथ ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेवको हरजन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था।अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचलऔररानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया।पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रहकर कठोर व्रत किया और शिव को प्रसन्नकर उनसे विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष होगया।

इसके अतिरिक्त एकअन्यकथा के अनुसार,मरकंडू ऋषि के पुत्र मारकण्डेय ने लंबीआयु के लिए सावन माह में ही घोर तप कर शिव की कृपा प्राप्त की थी, जिससे मिली मंत्र शक्तियों के सामने मृत्यु के देवता यमराज भी नतमस्तक हो गए थे।

भगवान शिव को सावन का महीना प्रिय होने काअन्य कारण यह भी है किभगवान शिव सावन के महीने में पृथ्वी पर अवतरित होकरअपनी ससुराल गए थे और वहां उनका स्वागत अर्घ्य और जलाभिषेक से किया गया था।माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष सावन माह में भगवान शिव अपनी ससुरालआते हैं।भू-लोकवासियों के लिए शिव कृपा पाने का यह उत्तम समय होता है।

पौराणिक कथाओं में वर्णन आता है कि इसी सावनमास में समुद्र मंथन किया गया था।समुद्र मथने के बाद जो हलाहल विष निकला, उसे भगवान शंकर ने कंठ में समाहित कर सृष्टि की रक्षा की; लेकिन विषपान से महादेव का कंठ नील वर्ण हो गया।इसी से उनका नाम 'नीलकंठमहादेव' पड़ा।विष के प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया।इसलिए शिवलिंग पर जल चढ़ाने का ख़ास महत्व है।यही वजह है कि श्रावण मास में भोले को जल चढ़ाने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। 'शिवपुराण' में उल्लेख है कि भगवान शिव स्वयं ही जल हैं।इसलिए जल से उनकी अभिषेक के रूप में अराधना का उत्तमोत्तम फल है, जिसमें कोई संशय नहीं है।

शास्त्रों में वर्णित है कि सावन महीने में भगवान विष्णु योग निद्रा में चले जाते हैं।इसलिए ये समय भक्तों, साधु-संतों सभी के लिए अमूल्य होता है।यह चार महीनों में होने वाला एक वैदिक यज्ञ है, जो एक प्रकार का पौराणिक व्रत है, जिसे 'चौमासा' भी कहा जाता है; तत्पश्चात सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व भगवान शिव ग्रहण करते हैं।इसलिए सावन के प्रधान देवता भगवान शिव बन जाते हैं।

सावन के महीने में सब सेअधिक बारिश होती है, जो शिव के गर्म शरीर को ठंडक प्रदान करती है।भगवान शंकर ने स्वयं सनतकुमारों को सावन महीने की महिमा बताई है कि मेरे तीनों नेत्रों में सूर्यदाहिने, बांयेचन्द्रमा और अग्निमध्यनेत्र है।जब सूर्य कर्क राशि में गोचर करता है, तब सावन महीने कीशुरुआत होती है।सूर्य गर्म है, जो ऊष्मा देता है, जबकि चंद्रमा ठंडा है, जो शीतलता प्रदान करता है।इसलिए सूर्य के कर्क राशि में आने से झमाझम बारिस होती है, जिससे लोक कल्याण के लिए विष को पीने वाले भोलेनाथ को ठंडक व सुकून मिलता है।इसलिए शिव का सावन से इतना गहरा लगाव है।

सावन और साधना के बी चचंचल और अतिचलायमान मन कीएकाग्रता एक अहम कड़ी है, जिसके बिना परमतत्व की प्राप्ति असंभव है।साधक की साधना जब शुरू होती है, तब मन एक विकराल बाधा बनकर खड़ा हो जाता है।उसे नियंत्रित करना सहज नहीं होता।लिहाजा मन को ही साधने में साधक को लंबाऔर धैर्य का सफर तय करना होता है।इसलिए कहा गया है कि मन ही मोक्षऔर बंधन का कारण है।अर्थात मन से ही मुक्ति है और मन ही बंधन का कारण है।भगवान शंकर ने मस्तक में ही चंद्रमा को दृढ़ कर रखा है, इसीलिए साधक की साधना बिना किसी बाधा के पूर्ण होती है।

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